मंगलवार, 20 सितंबर 2011

यह आखिरी अनुतोष है

आतंक बढता जा रहा है
 चारो तरफ जन रोष है
रिक्त होता जा रहा 
भारत का धन कोष है
महंगाई बढती जा रही है
 घट रहा मानव का मुल्य
वे मुस्करा कर कह रहे है 
मेरा नही कुछ दोष है


भडके नही कही भी दंगे 
इस बात का संतोष है
चलते रहे गोरख धंधे 
मारा गया निर्दोष है
बेंच दी जिन्हे आत्माये 
मतदान कर उन्हे क्यो जिताये ?
सुधरे व्यवस्था  अवस्था 
 यह  आखिरी  अनुतोष है

दीन भूख से निढाल हुआ 
दिखती उन्हे  प्रदोष है
वे जीत कर चले आ रहे है 
होता रहा जय घोष है
हुई व्यर्थ सारी योजनाये 
स्वराज्य की संकल्पनाये
चहु और फैला है हलाहल 
और ृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृक्रुध्द आशुतोष है

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न बिकती हर चीज

लज्जा का आभूषण करुणा  के बीज कौशल्या सी नारी तिथियों मे तीज  ह्रदय मे वत्सलता  गुणीयों का रत्न   नियति भी लिखती है  न बिकती हर चीज